2005 में श्री नीतीश कुमार के शासन संभालने के बाद से अब तक आधी आबादी को लेकर बिहार ने जो प्रतिबद्धता दिखाई है, वो अभूतपूर्व है।
महिलाओं के लिए पंचायत में 50 प्रतिशत और नौकरियों में 35 प्रतिशत आरक्षण हो, बालिकाओं के लिए साइकिल और पोशाक योजना हो,
दहेजबंदी और बालविवाह-बंदी हो या फिर कन्या-सुरक्षा की चिन्ता – श्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार ने कई ऐतिहासिक निर्णय लिए हैं और पूरे देश का ध्यान खींचा है।
यहां शराबबंदी की चर्चा खास तौर पर होनी चाहिए, क्योंकि यह विषय भले ही सीधे महिलाओं से जुड़ा हुआ ना दिखे, लेकिन उनके जीवन-स्तर और दिनचर्या में इसके बाद जो
गुणात्मक सुधार हुआ है, वो अभूतपूर्व है। यह किसी से छिपा हुआ नहीं कि घर के पुरुष सदस्यों के शराब की लत के कारण आर्थिक, शारीरिक और मानसिक यंत्रणा की सर्वाधिक
शिकार वही होती थीं और यह सत्य भी सर्वविदित है कि महिलाओं की मांग पर ही श्री नीतीश कुमार ने
पहले शराबबंदी और फिर पूर्ण नशाबंदी का निर्णय लिया।
गांधी, जेपी और लोहिया को जो जानते और मानते हैं, उन्हें अच्छी तरह पता होगा कि ये सभी जितने राजनीतिज्ञ थे, उतने ही समाज-सुधारक। इस त्रिमूर्ति ने अपने-अपने समय
में महिलाओं को मुख्यधारा में लाने के लिए ना केवल चिन्ता की थी, बल्कि अथक प्रयत्न भी किया था। गांधीजी ने कई स्थलों पर माना है कि शराबबंदी के जरिये स्त्री-हिंसा को
बहुत हद तक काबू में किया जा सकता है। स्वतंत्र भारत में इसे सबसे शिद्दत से किसी ने समझा तो वे नीतीश कुमार हैं। ठीक इसी तरह जेपी की संपूर्ण क्रांति की ‘संपूर्णता’ और
लोहिया की ‘सप्तक्रांति’ की अवधारणा महिलाओं के समग्र उत्थान के बिना पूरी नहीं होगी। नीतीश कुमार ने इन महापुरुषों की सोच को बिहार में अमलीजामा पहनाया और जो महिलाएं
खिड़कियों से झांका करती थीं, उनके लिए उन्होंने पूरा का पूरा दरवाजा खोल देने का काम किया।
नीतीश कुमार अब दुर्लभ हो चुके उन लोगों में हैं, जो मानते हैं कि राजनीति का उद्देश्य केवल सत्ता हासिल करना नहीं, उसका कार्य सामाजिक संरचनाओं का परिमार्जन
भी है। इसी सोच के तहत उन्होंने बिहार में शराबबंदी लागू की और इस मुहिम में सफलता भी मिली। अब उनके नेतृत्व में दहेजप्रथा और बालविवाह के खिलाफ अभियान छेड़ा
गया है और इसमें कोई संदेह नहीं कि यहां भी सफलता हासिल होगी। कुल मिलाकर हमें यह कहने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि बिहार मौन क्रांति की प्रस्तावना लिख रहा है।
आज विकास की बात सभी राज्य और राजनीतिक दल कर रहे हैं, लेकिन विकास के साथ सामाजिक सुधार की बात कहीं हो रही है तो वो बिहार है और जिस दल ने इसे अपना एजेंडा बनाया है,
वो जेडीयू है। अपनी प्रतिबद्धता को जमीनी स्तर पर मूर्त रूप देने के लिए ही हमने महिलाओं के लिए ‘समाज-सुधार वाहिनी’ और पुरुषों के लिए ‘समाज-सुधार सेनानी’ के नाम से समर्पित
साथियों का ‘दस्ता’ तैयार किया है।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक भारत में हर घंटे दहेज के लिये एक बेटी को मार दिया जाता है। दहेज के कारण ही आज पढ़ी-लिखी युवतियों को भी परिवार बोझ मानता है।
कई अवसरों पर तो यह देखा गया है कि परिवार के दर्द को न सह पाने के कारण बेटियां आत्महत्या तक कर लेती हैं। दहेज के खातिर ही बेमेल शादियां भी हुआ करती हैं, जिसके
परिणामस्वरूप एक ओर जहां बेटी की जिन्दगी तबाह होती है, वहीं दूसरी तरफ भोगवादी मानसिकता को शह मिलती है। यही नहीं, भविष्य में दहेज से बचने की खातिर ही भ्रूण-हत्या को
अंजाम दिया जाता है। इसी तरह बालविवाह की बात करें तो इसके कारण बेटियां असमय गर्भधारण करती हैं और उन्हें कई भीषण बीमारियों से जूझना पड़ता है। आश्चर्य तो यह कि दहेज
और बालबिवाह कमोबेश पूरे देश की समस्या है, पर समाज को कलंकित करने वाली इन कुरीतियों से लड़ केवल बिहार रहा है। हमारी कोशिश है कि इन कुरीतियों के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर
पर मुहिम चले और आधी आबादी को उसका पूरा अधिकार मिले। जब तक ऐसा नहीं होगा, तब तक हम सामाजिक स्तर पर पिछड़े रहेंगे और समर्थ व विकसित भारत का सपना अधूरा रहेगा।